Friday, May 11, 2018

दास्ताँ-ए-किसानी - दसरथ केवट की ढाई एकड़ की किसानी है घाटे का सौदा (मामला ज़िले एवं प्रदेश के छोटे और मझले तबके के किसानों का जिनके लिए किसानी करना किसी मजबूरी से कम नही, लॉगत ज्यादा और उपज कम तो कैसे होगा किसानों का कल्याण, पीएम फसल बीमा योजना कमियों से सनी हुई नही कर सकती किसान का कल्याण)

दिनाँक 12 मई 2018, स्थान - रीवा मप्र,

(कैथा, रीवा-मप्र, शिवानंद द्विवेदी)

   इस वर्ष पूरे प्रदेश और देश में सूखे अकाल के कारण किसानों की फसलें एकबार पुनः तबाह हो चुकी हैं। किसान पुनः कर्ज़ के बोझ तले दब चुका है और अब उसके परिवार को चलाने के जद्दोजहद प्रारम्भ हो चुकी है। लगभग हर छोटे और मझले तबके के किसान की लागत उपज से कहीं ज्यादा है, ऐसे में किसानों की स्थिति पर प्रकाश डालता है यह लेख विशेष तौर पर ध्यान देने योग्य है।

प्रधानमंत्री फसल बीमा मात्र किसानों का प्रीमियम ऐंठने का तरीका, जब तक इसकी कमी दूर नही की जाती तब तक पीएम फसल बीमा किसानों के साथ अन्याय

        कहने को तो समितियों और बैंकों से ऋण लेने के साथ ही सभी किसानों की फसल बीमा अनिवार्य तौर पर अपने आप ही कर दी जाती है लेकिन इन फसल बीमा का कोई लाभ इन किसानों को नही मिल पा रहा है। कारण यह है कि सरकार की प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में ही कमी है। फसल बीमा का कांसेप्ट ऐसा है कि इसमें किसान द्वारा हज़ारों रुपये प्रीमियम देने के वावजूद भी किसानों को बहुत विशेष नुकसान पर ही फसल बीमा का लाभ मिल पाता है। यदि कोई भीषण प्राकृतिक आपदा आ जाये जिसमे बाढ़, ओले, पाला और पत्थर पड़ जाएं अथवा भीषण सूखा हो जिसमे जल स्रोत ही न बचें तो थोड़ा बहुत फसल बीमा का लाभ मिलता है लेकिन उन स्थितियों में जबकि किसान सूखा की स्थिति में खरीदकर फसल में दिन रात पानी लगाए, अपने खून पसीने से सींचे और तब भी यदि उसका उत्पादन लागत से कम हो अथवा बराबर हो तो इन स्थितियों में किसानों को फसल बीमा का कोई लाभ नही मिलता। 

      मसलन इस वर्ष रवी 2018 की स्थिति को ही देख लिया जाए तो यदि आधार के तौर पर प्रदेश का एक जिला रीवा मूल्यांकन के लिए लिया जाए तो पाते हैं कि इस वर्ष रवी गेहूं के सीजन में कोई भी बारिस नही हुई। जिन किसानों के पास परंपरागत तालाब पोखर अथवा ट्यूबवेल वगैरह थे तो किसी कदर 4 से 5 तक पानी की सिचाई की गई। जिन किसानों के पास अपना कोई व्यक्तिगत जलस्रोत नही था उन्होंने दूसरे किसानों से पानी पैसे में खरीदकर सिचाई की। कहने को तो खेतों में काफी हरियाली दिखी और लगा कि किसान की मेहनत रंग लाएगी और काफी कुछ गेहूं का उत्पादन होगा परंतु स्थिति बिल्कुल इसके उलट थी। खेतों में तो हरियाली जरूर दिखी क्योंकि किसानों ने किसी कदर खेतों की सिंचाई की परंतु जब पककर फसल काटने की बात आई तो प्राकृतिक तौर पर ऊपर आसमान से बरसने वाले पानी की तुलना में सिचाई के पानी से प्राप्त फसल के दानों में शक्ति नही दिखी। जिन खेतों में प्रति एकड़ के हिसाब से 15 से 20 क्विंटल तक गेहूं हो सकता था वहां पर बहुत मुश्किल से 5 से 8 क्विंटल अधिकतम हुआ। ऐसे में इतनी मेहनत के बाद यदि आधा से कम उत्पादन हो रहा है तो किसानों को फसल बीमा का लाभ क्यों नही दिया जा रहा है? पीएम फसल बीमा में जब तक इन कमियों को दूर नही किया जाता तब तक वर्तमान फसल बीमा का कोई औचित्य नही होगा। फसल बीमा में किसान की कुल लागत, किसान की दिन रात की मेहनत, और उस सीजन विशेष में मानसून की स्थिति, बारिस आदि को ध्यान में रखकर फसल बीमा का लाभ किसानों को दिया जाना चाहिए। जैसे इस वर्ष भले ही किसानों ने कड़ी मेहनत करके थोड़ा बहुत उत्पादन कर लिया हो पर उन्हें फसल बीमा का लाभ अवश्य मिलना चाहिए था पर ऐसा नही हुआ। यही इस फसल बीमा की बहुत बड़ी कमी है। एक तो उत्पादन कुछ नही हुआ ऊपर से फसल बीमा का फालतू में किसानों से लिया जाने वाला प्रीमियम किसानों पर एक तरह का अत्याचार है।

अध्ययन में लेते हैं छोटे तबके के किसान दसरथ केवट को

           किसान दसरथ केवट पिता गणेश केवट निवासी ग्राम कैथा, थाना गढ़, ज़िला रीवा मप्र

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दसरथ की खरीफ वर्ष 2017-18 धान की खेती का व्योरा -

कुल किसानी ढाई एकड़-

धान बीज 4 बोरी 800 रुपये प्रति बोरी के हिसाब से 3200 रुपये,

जुताई - 7000 रुपये,

खाद (समिति से) - 3 बोरी यूरिया 900 रुपये, और 2 बोरी डी ए पी 2200 रुपये,

कीटनाशक - 1400 रुपये,

सिचाई - 5000 रुपये,

कटाई - 7000 रुपये.

गहाई - 4 घंटे ट्रेक्टर थ्रॉशेरिंग 700 रुपये घंटे के हिसाब से 2800 रुपये,

खरीदी केंद्र में ट्रेक्टर से धान पहुचाने का चार्ज = 1000 रुपया

कुल लॉगत धान = 30500 रुपये.

कुल धान की उपज = 30 क्विंटल = 30 गुणा 1550 = 46500 रुपये.

कुल आमदनी खरीफ धान = कुल उपज धान - कुल लॉगत धान = 46500 - 30500 = 16000 रुपये.

6 महीने रवी सीजन की मूल आमदनी 16000 रुपये जबकि दो व्यक्तियों की 400 रुपये रोज़ के हिसाब से 72000 रुपये जोड़ दिया जाए तो आमदनी निगेटिव में र्थात घाटा आता है।

वर्ष 2018 रवी गेहूं की फसल -

कुल बुबाई का रकबा = ढाई एकड़,

जुताई = 7000 रुपये,

कुल बीज खर्च =  3300 रुपये,

खाद =  3 बोरी डी ए पी 3300 रुपये, 2 बोरी यूरिया 600 रुपये = 3900 रुपये

सिचाई तीन पानी = 8000 रुपये,

कटाई = 12000 रुपये,

गहाई =  1100 रुपये प्रति घंटे के हिसाब से 4 घंटा = 4400 रुपये।

कुल लागत रवी वर्ष 2017-18 = 38600 रुपये,

कुल उपज गेहूं रवी 2017-18 = 15 क्विंटल = 15 गुणा 1735 = 26025 रुपये।

कुल आमदनी रवी वर्ष 2017-18 = कुल उपज गेहूं - कुल लागत गेहूं = 26025 - 38600 = -12575 रुपये का घाटा जबकि प्रति मजदूर 200 रूपाये के हिसाब से 2 व्यक्तियों का मजदूरी का चार्ज 72 हज़ार रुपये अलग से जपड दें तो घाटा कई गुना अधिक बढ़ जाता है।

किसान दसरथ केवट की पारिवारिक स्थिति -

        किसान दसरथ केवट के परिवार में पत्नी जुगुन्ती केवट हैं जिनके 3 पुत्र और दो पुत्रियां हैं। दोनो पुत्रियों सीता केवट एवं बेला केवट की शादी हो चुकी है। 3 पुत्रों के नाम क्रमशः अरुण केवट उम्र 26 वर्ष, शिव कुमार केवट उम्र 19 वर्ष, शिवभान केवट 16 वर्ष है। बड़ा पुत्र की शादी हुई है जिसके 2 लड़के और 1 लड़की है। पूरा परिवार साथ में ही रहता है। इस प्रकार कुल परिवार में 9 सदस्य हैं. सभी का गुजारा इसी खेती और मजदूरी से होता है। दसरथ केवट ने बताया की वह घर जोड़ने वाले मिस्त्री का भी काम काम कर लेते हैं जिसकी वजह से घर का खर्च चलाने में मदद मिलती है।

       बड़ा लड़का अरुण केवट कभी कभी मजदूरी के सिलसिले में बाहर जाता है। दोनो बड़े लड़के अरुण केवट और शिवकुमार केवट मात्र 9 वीं पास हैं 10 वीं में फैल हो जाने के कारण बीच में ही पढ़ाई छोंड़ दिए। सबसे छोटा लड़का शिवभान केवट 8 वीं कक्षा में अध्ययन कर रहा है।

 ऐसे किसान परिवारों का क्या है भविष्य?

      इस प्रकार के छोटे और मझले तबके के किसानों का कोई भविष्य नही है. इनके पूर्वजों के इन्हें मजदूरी और आर्थिक सामाजिक पराधीनता विरासत में मिलती चली आ रही है.

    गरीबी, अशिक्षा, और लाचारी इन्हें विरासत में मिलती चली जाती है. जब दसरथ केवट से पूछा गया की उनकी शिक्षा कितनी हुई तो बताया की शिक्षा प्राप्त करने का अवसर ही नही मिला. बड़े भाई मोतीलाल केवट की मृत्यु कर बाद बचपन में ही मां बाप मजदूरी और खेती किसानी में लगा दिए तो बस उसी में लगे हुए हैं. इनके पुत्रों ने भी यही बात कही की शिक्षा प्राप्त करने का अवसर ही नही मिला. घर के काम और पिता की मजदूरी में हाँथ बटाऐं की पढ़ाई लिखाई करें. कुछ ने 9 वीं तक प्रयास भी किया परंतु 10 वीं में फैल होने की वजह से हिम्मत हारकर रुचि खो दिया और पढ़ाई छोड़ दिया। बताया गया की गांव की सरकारी स्कूलें न के बराबर हैं जहां पढ़ने और न पढ़ने में कोई अंतर नही है. गांव में कोई पढ़ाई लिखाई नही होती और शहर की इंग्लिश माध्यम की स्कूलों में पढ़ने के लिए क्षमता और पैसे ही नही. 

छोटे किसानों को खेती किसानी छोड़ व्यापार करना भी नही आसान, बैंकों में विश्वशनीयता और शाख की है समस्याएं 

     इस प्रकार देखा जाए तो अशिक्षा, गरीबी, लाचारी और बेरोजगारी इन्हें विरासत में मिलती जाती है. पीढ़ी दर पीढ़ी इनको इनके जीवन स्तर में कोई विशेष सुधार नही हो पाता है. इनके लिए अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने का एक ही तरीका बचता है जो व्यापार है. कम पढ़े लिखे अथवा अशिक्षित भी यदि खेती किसानी छोड़ व्यापार में उतर आएं तो इनके जीवन स्तर में सुधार हो सकता है. परंतु अच्छे व्यापार के लिए भी कई समस्याएं हैं जिनसे निजात मिल पाना मुश्किल है. चूंकि इन गरीबों के पास पूंजी का अभाव रहता है अतः किसी अच्छे व्यापार की दिशा में सोच पाना भी इनके लिए स्वप्न जैसा ही है. 

     बैंकिंग सेक्टर से कर्ज़ भी उन्ही लोगोँ को दिया जाता है जिनकी कुछ क्रेडिट होती है. क्रेडिट के अभाव में इन छोटे मजदूर किसानों को लोन मिलने में भी कठिनाई होती है. यद्यपि सरकार द्वारा दुनिया भर की योजनाएं मात्र कागजों पर दौड़ रही हैं जिनमे युवा स्वरोजगार, युवा उद्यमी आदि योजनाओं में लोन दिया जाने का प्रावधान है लेकिन यह कर्ज़ भी ऐसे लोगों को मिल पाता है जिनकी पहले से साख और पहचान होती है. गरीब मजदूर और किसानों की कहीं कोई पूँछ नही. ऐसे किसानों को बैंकों की सीढियां ही नही चढ़ने दिया जाता और पहले ही भगा दिया जाता है.

मायूसी और अवसाद में ग्रस्त किसान लगाते हैं मौत और नशे को गले

  इन परिस्थितियों में जबकि खेती-किसानी घाटे का सौदा और एक मजबूरी बन चुका है कोई भी विकल्प उपस्थित न होने पर छोटे और मझले तबके के किसान जिंदगी की जद्दोजहद से हार मान लेते हैं और मायूस होकर अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं. ऐसे में ज्यादातर नशे की गिरफ्त में भी आ जाते हैं जिससे उनकी समस्याएं कम होने की जगह बढ़ जाती हैं. नशे का सहारा लेने पर पारिवारिक और सामाजिक स्तर में और भी अधिक पतन हो जाता है. इससे रही सही आर्थिक स्थिति भी और अधिक डांवाडोल हो जाती है. किसान कर्ज़ में डूबता चला जाता है. और फिर अंत में आत्महत्या जैसे घातक कदम उठाता है. 

मनोवैज्ञानिक तौर पर आत्महत्या निराशा की पराकाष्ठा है

     आज मनोवैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं की किसी भी व्यक्ति द्वारा आपने इस जीवन को नष्ट करने का निर्णय लेना निराशा की पराकष्ठा है. जब व्यक्ति को परिवार, समाज, देश, सरकार और ईश्वर सभी के विश्वास उठ जाता है और उसे लगता है की इस जीवन में अब कुछ भी शेष नही बचा है तब वह अंत में ऐसे घातक कदम उठाता है जिसमे वह अपने सुंदर जीवन को नष्ट करने पर मजबूर हो जाता है. यद्यपि आत्महत्या के पहले यदि मनोवैज्ञानिकों द्वारा सही तरीके से काउंसलिंग की जाए तो मरने वाले का जीवन तो किसी तरह बचाया जा सकता है.

संलग्न - मप्र के रीवा ज़िला अंतर्गत थाना गढ़ के कैथा ग्राम निवासी दसरथ केवट के परिवार के साथ फ़ोटो यहां पर संलग्न है. 

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शिवानन्द द्विवेदी, सामाजिक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता, रीवा मप्र, 

मोबाइल - 7869992139, 9589152587,

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