दिनांक 30 जून 2018, गढ़, रीवा-मप्र,
(कैथा श्री हनुमान मंदिर से, शिवानन्द द्विवेदी)
आज जब हम सब किसान एक बार फिर खरीफ धान की खेती प्रारम्भ करने वाले हैं हममें से कुछ गोवंश और पशु प्रेमी किसान यह बात जरूर सोच रहे होंगे की अब इस वर्ष क्या होगा? क्या हमारी सारी धान की फसलें आवारा पशुओं द्वारा चर ली जाएंगी या यह बच पाएगी? क्या सरकार आवारा पशुओं के लिए व्यवस्था करेगी य यूं ही हमारे स्वयं के द्वारा आवारा छोंड़ दिए गए इन पशुओं से हमारी स्वयं की फसलें तबाह हो जाएंगी?
शायद कुछ किसान अथवा गोवंश प्रेमी यह भी सोच रहे होंगे की एकबार फिर गायों की दुर्दशा देखने को मिलेगी जहां आवारा पशुओं को एकत्रित करके जबरन किसी बाड़े में ठूस दिया जाएगा जहां न तो इनके लिए चारा पानी की व्यवस्था होगी और न ही किसी छत्रछाया की. उन्ही अवैध रूप से ग्रामीणों द्वारा बनाये गए बाड़ों में यह बेजुबान पशु भूंख प्यास वर्षा सहते हुए कुछ सप्ताह अथवा महीनों में घुट घुट कर मर जाएंगे.
आवारा पशुओं का क्या है समाधान
आज समाज और सरकार दोनो के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न यह है की समाज द्वारा आवारा छोंड़ दिए गए इन पशुओं का क्या समाधान है? इनको कौन पाले? कौन इनकी व्यवस्था करे? जब तक गायें दूध देती हैं तब तक दूध बहुत प्रिय है. हमे चाय तो दूधवाली चाहिए, बच्चों को भी देशी गाय का ही दूध चाहिए, साथ ही मठ्ठा, दही, लस्सी, घी, मख्खन पनीर सब कुछ चाहिए. परंतु जैसे ही गाय दूध देना बन्द कर देती है वैसे ही वह आजकल के फैशन में बूढ़े माँ-बाप की तरह बेकाम हो जाती हैं और उन्हें मरने के लिए छोंड़ देते हैं. आज भारतीय समाज में जिस प्रकार से वृद्धाश्रम और अनाथाश्रम बढ़ रहे हैं उसी प्रकार आवारा छोंड़ दिए गए गायों के लिए भी कुछ गिने चुने बचे हुए गोप्रेमी लोगों द्वारा मिलजुलकर अथवा सरकार पर दबाब डालकर और अधिक बड़ी गोशालाएं बनाई जानी चाहिए. आने वाला भारतीय समाज और भी आधुनिक होगा जहां पर पुरानी परंपराओं और रीति रिवाजों के लिए कोई विशेष जगह नही बचेगी. यदि परंपराएं बड़ी मुश्किल से चलेंगी भी तो मात्र औपचारिकता के रूप में.
दशकों पूर्व थी पशुओं की अधिक उपयोगिता
आज गोवंशों के प्रति निरंतर हो रही क्रूरता और उपेक्षा के पीछे सबसे बड़ा कारण इनकी उपयोगिता का कम हो जाना है. शहरों में तो कभी भी दूध डेयरी के अतिरिक्त पशुपालन होता नही. कहें की हज़ारों में कोई एकाध गो प्रेमी हों जो अपने घर में एक गाय रखे हों वह अलग बात है. गायों और पशुओं की उपयोगिता सबसे अधिक ग्रामीण समाज में रहती थी. भारत में चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, इशाई हो या सिक्ख सभी धर्मों और सम्प्रदायों के ऐसे लोग जो ग्रामों में निवास करते थे और जिनके पास दो चार एकड़ अथवा अधिक की भूमि थी जब तक मशीन का ईजाद नही हुआ था तब तक अपने ग्रामों में पशुओं को पाल कर रखते थे. गाय से बैल उत्पन्न होता था और बैल हल में जोतने का कार्य करता था साथ ही गहाई मिजाई में भी काम आता था. पहले आज जैसे न तो मिटी का तेल पर्याप्त था और न ही गैस वगैरह अतः पशुओं से प्राप्त गोबर का प्रयोग ईंधन और खेत में उपयोग होने वाली खाद के रूप में किया जाता था.
मशीनीकरण और आधुनिकता है मुख्य वजह
पर आज जब पशुओं से लेकर आदमी तक की जगह मशीनें और रोबोट लेने लगे हैं स्वाभाविक रूप से पशुओं के साथ साथ आदमी की भी उपयोगिता कम होती जा रही है. अतः आज के इस कलयुगी समाज में यदि किसी को भी सम्मान पूर्वक जीवित बने रहना है तो इस स्वार्थी समाज के किसी न किसी उपयोग में आना होगा. धर्म कर्म और संस्कार की आज बात करना लगभग फालतू हो चुका है. जो धर्म की बात करते हैं उन्हें पागल और साम्प्रदायिक कहते हैं और जो कर्तव्य की बात करते हैं उन्हें यह तथाकथित आधुनिक समाज मूर्ख और 18 वीं सदी का बताता है. अतः बहुत से लोग इसके चलते आधुनिकता और मशीनीकरण के दौर में वह सब अनर्थ करते जा रहे हैं और वही सब अनर्थ आज उनके संस्कार बनते जा रहे हैं.
ट्रेक्टर, जेसीबी, थ्रेशर, और अन्य मशीनों ने पशुओं का कर दिया काम तमाम
गाय को माँ कहना भूल जाईये, आज का कुछ आधुनिक समाज अपनी माँ को भी माँ कहने में झिझकता है. यदि माँ-बाप बूढ़े और ग्रामीण कम पढ़े लिखे हैं तो आज का तथाकथित मॉडर्न व्यक्ति उन्हें अपना नौकर अथवा गांव वाला कहकर इंट्रोड्यूस करता है. इससे बढ़कर विडंबना और क्या हो सकती है.
गाय तो बहुत दूर की वस्तु है. गाय का देशी दूध सभी को चाहिए, दुग्ध उत्पाद सभी को चाहिए लेकिन गायों के प्रति संवेदनशील कोई नही होना चाहता. गाय के बच्चे अर्थात बैल को कोई देखना नही चाहता.
जब तक बैल हलों में चलते थे और उपयोगी थे तब तक वह सभी के लिए महत्व के थे अब मशीनों के चलते उनका महत्व समाप्त हो चुका है.
फिर बनेंगे अवैध बाड़े, फिर बढ़ेगी पशु क्रूरता
खरीफ वर्ष 2018 की फसल के साथ ही आवारा छोंड़ दिए गए गोवंशों की प्रताड़ना फिर बढ़ने वाली हैं. जगह जगह गांव गांव में किसानों काश्तकारों की लाठियां और डंडे के साथ साथ टांगा और कुल्हाड़ी खाते हुए यह गोवंश घायल अवस्था में भूंखे प्याशे फिर मरेंगे, गांव गांव इनके लिए नाज़ी युग में यहूदियों के लिए बनाये गए गैस चैम्बर और डिटेंशन कैम्प की तरह बांस बल्ली और कटीले तारों के बनाये गए अवैध बाड़ें होंगे जहां इन्हें अपर्याप्त व्यवस्था के साथ रखा जाएगा. न तो वहां पर कोई किसी प्रकार की छाया होगी और न ही पैरा भूषा की. ऐसे में कुछ दिनों बाद यह पशु प्रताड़ित होकर मरेंगे यही इनकी किस्मत में हर वर्ष लिखा रहता है.
जनकहाई और गदही के गो अभ्यारण्य का क्या हुआ?
सिरमौर क्षेत्र रीवा में पिछले कई वर्षों से गोवंश प्रताड़ना के केस सामने आये हैं जिनमे सामाजिक कार्यकर्ता एवं गोवंश राइट्स एक्टिविस्ट शिवानन्द द्विवेदी द्वारा पशुओं के साथ हो रही क्रूरता को सोशल मीडिया एवं मीडिया के माध्यम से निरंतर उठाया जाता रहा है साथ ही ऐसे दर्जनों प्रकरणों में पूरे सबूत के साथ घटनास्थल पर जाकर उच्चधिकारियों द्वारा कार्यवाही भी करवाई गई है, अवैध बाड़े तोड़वाकर पशुओं को आज़ाद करवाया गया है, उनकी जाने बचाई गई हैं और साथ ही दोषियों को दंडित करवाने का भी प्रयाश किया गया है.
पिछले वर्षों समाजिक कार्यकर्ता के इन्ही प्रयाशों के चलते रीवा ज़िले में गोअभ्यारण्य बनाये जाने की पहल की गई हैं जिनमे जनकहाई में प्रपोजल का डीपीआर हुआ था और साथ ही हिनौती के गदही में हज़ार एकड़ से अधिक शासकीय भूभाग में भी गोअभ्यारण्य बनाये जाने के लिए प्रपोजल ज़िला कलेक्टर रीवा एवं केंद्रीय मंत्रालय के निर्देश पर एसडीएम केपी पांडेय की जांच के दौरान उठा था. लेकिन जनकहाई एवं गदही के प्रपोजल का क्या हुआ इसकी कोई जानकारी नही है. एकबार फिर अकस्मात शासन चौंक पड़ेगा जब नित नए रोज गोप्रताड़ना के किस्से सोशल मीडिया एवं मीडिया में छाए रहेंगे.
गदही में गो अभयारण्य बनाया जाना अति आवश्यक
यदि गढ़ थाना क्षेत्र में गोवंश प्रताड़ना पर रोक लगाना है तो या की ऐसा कृत्य करने वालों के ऊपर सीधे एफआईआर दर्ज हो अथवा गोवंशों की समुचित व्यवस्था की जाए जिससे किसानों की फसल नुकसानी पर रोक लगे. उसके लिए आवश्यक है की गंगेव ब्लॉक एवं सिरमौर तहसील अन्तर्गत आने वाला गदही ग्राम पर हज़ार एकड़ से अधिक के शासकीय भूभाग पर गोअभ्यारण्य बनाया जाए.
गो अभ्यारण्य से स्थापित होगा उद्योग
यदि थाना गढ़ क्षेत्र एवं सिरमौर तहसील के अन्तर्गत आने वाले गदही ग्राम के शासकीय राजस्व के भूभाग में गो अभ्यारण्य बनाये जाने की पहल शासन प्रशासन करता है तो इससे न केवल गोवंशों की सुरक्षा होगी बल्कि गोवंश जनित उद्योग की भी एक प्रकार से स्थापना हो जाएगी. गोवंशों के गोबर से जैविक खाद, गोबर की खाद, गोबर गैस, गोमूत्र से दवा का निर्माण, पंचगव्य का निर्माण, दूध से दुग्ध उत्पाद आधारित सामग्री आदि का निर्माण किया जाकर कई लोगों को इस रोजगार से भी जोड़ा जा सकता है.
गोहत्या पर सीधी हो फांसी की सजा का प्रावधान
वास्तव में जब तक गाय को संरक्षित राष्ट्रीय पशु की संज्ञा में नही लाया जाता तब तक गाय की रक्षा सुरक्षा हो पाना काफी मुश्किल बात है. सबसे पहले सरकार को चाहिए देश से बीफ उत्पाद के निर्यात पर पूरी तरह से बैन लगा देना चाहिए. साथ ही जानबूझकर गाय की हत्या करने वाले को कड़ी से कड़ी सजा और यहां तक की फांसी की सजा का प्रावधान होना चाहिए.
कैसे बढ़ाई जाए गोवंशों की उपयोगिता
आज तथाकथित आधुनिक मॉडर्न समाज में गाय की उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह लग चुका है. गोवंश की उपयोगिता मात्र दूध खाने तक ही सीमित रह गई है. आज न तो हल में बैल की जरूरत है न ही बैलगाड़ी में, इसी प्रकार कोल्हू में भी बैल नही लगता, मिजाई, गहाई, दमरी आदि में बैल की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है अतः यह आवश्यक है की बूढ़े और कमजोर हो चुके बैलों से लेकर सभी प्रकार के गोवंशों की उपयोगिता पर पुनर्विचार किया जाए.
कृत्रिम और रासायनिक खादों से बढ़ रही बीमारियां, समाप्त हो रही उर्वराशक्ति
कृत्रिम और रासायनिक खादों के उपयोग से बीमारियां बढ़ रही हैं और साथ ही जमीन की उर्वराशक्ति भी समाप्त होती जा रही है जिससे वैज्ञानिकों द्वारा निरंतर जैविक खेती पर बल दिया जा रहा है. जैविक खेती करने के लिए सरकारें भी प्रोत्साहित कर सब्सिडी दे रही हैं लेकिन अभी भी हरित क्रांति के बाद से इतना अधिक रासायनिक खाद का प्रयोग किया जाने लगा है की जैविक और गोबर की खाद के विषय में कोई सोच ही नही रहा है. अब जब इस प्रदूषित खान पान और केमिकल से नित नई बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं ऐसे में वैज्ञानिक और डॉक्टर भी चिंतित हो रहे हैं की ऐसे में उत्पादन से अधिक सरकार का खर्च तो बीमारियों के इलाज में खर्च हो रहा है ऐसे में वैज्ञानिक और सरकारें कम से कम रासायनिक खाद के प्रयोग पर बल दे रही हैं साथ ही जैविक खाद और जैविक खेती का प्रचार प्रसार कर रही हैं. यह बात तो आज आम है की हरित क्रांति के बाद ज्यादा उत्पादन की होड़ में हो रही बेतरतीब रासायनिक खाद के प्रयोग से हमारी इतनी उर्वर धरती भी बंजर होकर रेगिस्तान में बदलती जा रही है. शायद इस विषय में आम किसान और नागरिक आज विचार न कर रहा होगा परंतु जब तक विचार करेगा शायद तब तक काफी देर हो चुकी होगी अतः आज आवश्यकता है एकबार पुनः वैदिक खेती की जिंसमे न तो जीवों की हत्या होती और न ही गोवंशों की. इन्ही गोवंशों के सहारे अधिक से आधिक उत्पादन प्राप्त कर लाभ कमाया जाकर जीवन यापन किया जा सकता है. हाँ एक बात जरूर है की गोवंशों और पशु आधारिक वैदिक खेती में एक व्यक्ति को फुलटाइम समय देना पड़ता है जिंसमे माल मवेशियों की देखभाल से लेकर खेती किसानी करना. परंतु चूंकि आज के इस भागते दौड़ते जीवन में किसी को समय ही नही है अतः हर कोई चाहता है की ट्रेक्टर से 2 घंटे में जोतबोकर फुरसत हुआ जाए और जाकर आगे का पैसा कमाया जाए, क्यो पूरा समय खेती किसानी के ही चक्कर में पड़ा रहा जाए.
दोषारोपण बन्द कर समस्या का निकले मानवीय समाधान
इस प्रकार इस विश्लेषण से यह भलीभांति समझा जा सकता है की गोवंशों की उपयोगिता इस मसीनी युग में ढूंढ पाना एक टेढ़ी खीर ही है. ऐसे में तो बस यही लगता है की आने वाले समय में कहीं इन गोवंशों की और अधिक दुर्दशा न बढ़े. आखिर किसी भी प्रकार के वृहद और सर्वांगीड़ परिवर्तन के लिए पूरे देश और समाज को सामने आना पड़ेगा, इसका रास्ता ढूंढना पड़ेगा अन्यथा समाज का सरकार को दोष देना और सरकार का समाज को दोष देने का सिलसिला चलता रहेगा और गोवंशों की स्थिति दिन प्रतिदिन बदतर होती जाएगी.
संलग्न - संलग्न चित्र में देखा जा सकता है रीवा ज़िले में गर्मियों के समय ऐरा चरते हुए मवेशी जो अभी कुछ सप्ताह बाद अवैध बाड़ों में ठूस दिए जाएंगे और अपने जीवन के अंतिम दिन गिनना प्रारम्भ कर देंगे.
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शिवानन्द द्विवेदी, सामाजिक कार्यकर्ता एवं एनिमल राइट्स एक्टिविस्ट
ज़िला रीवा मप्र, मोब 7869992139, 9589152587