Thursday, January 18, 2018

"(पशु क्रूरता) चरनोई तो ख़त्म ही हो गयी, पशुओं को पैरा एवं भूषा से भी किया जा रहा वंचित, गहाई-मिजाई के बाद किसान मार देता है माचिस, पूरा पैरा धू धू करके जाता है जल"

-----------------------------------
(शिवानन्द द्विवेदी, रीवा मप्र) चलिए आज  किसान और गोवंशों की दुर्दशा पर थोडा आगे प्रकाश डालते हैं और शोध करते हैं की इस समस्या की जड़ कहाँ है.
     चाहे मानव कितनी भी लच्छेदार बातें करे. चाहे मानव कितना भी मशीनी उपकरण का अविष्कार अपने विलासिता के लिए कर ले, फसल और उपज की सुरक्षा की बात करे, और अपनी भूंख का कितना भी रोना रोये शायद आज क्या कभी भी मानव की भूंख को न तो इंसान और और न ही भगवान् शांत कर सकता है. इतिहास, शास्त्र, ग्रन्थ इस बात के गवाह हैं की मानव का पेट और भूंख जब दोनों बढ़ने लगी तो मानव मानव न रहकर हैवान और राक्षस बन गया. रावण, कुम्भकर्ण, कंस, हिरनकश्यप, और पता नहीं कितने राक्षसों की कहानियां मानव से राक्षस बनने की हैं और अंततः उनके अंत की हैं. और आज फिर वही इतिहास दोहराए जाने की स्थिति में खड़ा है. किसी ने बिलकुल ठीक ही कहा है की इतिहास हमेशा अपने आप को दोहराता है. चाहे इतिहास में बुरा से बुरा हुआ रहा हो वह भी और चाहे अच्छा से अच्छा हुआ रहा हो वह भी दोनों ही दोहराए जाते हैं.
     अच्छा तो जो होना था वह भारत वर्ष में हो चूका अब तो शायद बुरे का ही समय आ चुका है. तभी तो शास्त्रीय ढंग से अच्छा और धार्मिक काम करने वाला हर वह शख्स दुनिया की नजर में मूर्ख, ढोंगी, दिखावटी कहलाता है और तथाकथिक गोमांस, मांसाहार, शराब नशा करने वाला समाज या व्यक्ति एडवांस्ड पढ़ा लिखा और मॉडर्न कहलाता है तो भला आज जब ज्यादातर समाज बीफ ईटर हो चूका है गोवंशों की सुरक्षा के लिए लड़ने वाला और उनके अधिकार की बात करने वाला व्यक्ति वेवकूफ मूर्ख नहीं कहलायेगा तो भला और क्या कहलायेगा?
   
मानव के अतिक्रमण ने समाप्त कर दिया चरनोई की भूमि, पशुओं के लिए नहीं है धरती में अब कोई स्थान शेष -
------------------------------------------

  जी हाँ हकीकत आज यही है की जो कभी गोचर और चरनोई की भूमि हुआ करती थी वह शासकीय माफिया एवं प्राइवेट माफिया ने मिलकर पूरी तरह से समाप्त कर दिया. कहीं कुछ नहीं बचा है. यदि बचा है तो मात्र पथरीला स्थान और वह भी आज माइनिंग के नाम बुरी तरह से दोहन किया जा रहा है. किसान के लिए कभी पशु पशुधन की श्रेणी में आते थे लेकिन आज कितना बड़ा दुर्भाग्य है की यही पशु चूँकि किसान के लिए दूध के अतिरिक्त खेती किसानी के लिए उपयोगी नहीं रहे तो सबके लिये बोझ बन गए. मानाकि मशीन का अविष्कार मानव जीवन के लिए वरदान साबित हुआ है और उसकी ज्यादातर भौतिक शुख सुविधाओं विलासिता की पूर्ती करने में सहायक सिद्ध हुआ है पर क्या यह मशीन सब कुछ कर पाएंगी? क्या वास्तव में गोवंशों अथवा पशुओं के बिना मानव धरती पर अकेले रह पायेगा? क्या गोवंशों के बिना भारतीय संस्कृति का वजूद रह पायेगा? बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्न है जो आज भारतीय मानव से जबाब तलास रहे हैं.
  
  खर पतवार के नाम पर किसान पैरा भूषा में खेत में ही लगा देता है आग, जल जाता है सब धू धू करके -
----------------------------------------------

पशुओं का पूरा अधिकार छीन लिया गया है. पहले उनको अनुपयोगी बताकर घर से खदेड़ दिया गया अब वह मारे मारे फिर रहे हैं. मानव को मात्र दूध, दही घी, पनीर, मक्खन ही बस पसंद है बांकी पशु उसे पसंद नहीं. जिस प्रकार से आज के वर्तमान विकसित समाज में बूढ़े हो चले माँ बाप हमे पसंद नहीं आते और भार लगते हैं वैसे ही गोवंश भी हमारे लिए अब पूरी तरह से भार बन चुके हैं. पहले मानव ने उनकी चरनोई और गोचर भूमि को समाप्त किया और अब उनके लिए शेष बचे पैरा भूषा को भी अपने लिए अनुपयोगी समझ कर माचिस मार रहा है. आज कहीं भी किसी भी गाँव में चले जाएँ तो देखने को मिलता है की आज जो स्वार्थी किसान अपनी फसल की दुहाई दे रहा है वह बिना विचार किये हुए जैसे ही फसल की मिजाई गहाई पूरी होती है बचे हुए भूषे एवं पैरा में माचिस मारकर जला देता है. आज कहीं कोई हरियाली नहीं है क्योंकि गोचर भूमि ही नहीं बची हुई है तो भला हरियाली कहाँ बचेगी. यदि हरियाली है भी तो वह है फसल की खेतों में हरियाली जिस पर किसान का पहरा है, और पहरा होना भी चाहिए. अब यदि वही किसान गहाई के बाद बचे हुए पैरे एवं भूषे में माचिस मार देगा तो भला मवेशिओं के लिए क्या ख़ाक बचेगा खाने के लिए? मवेशी दर दर की ठोकर मारे फिर रहे हैं. उन्हें खाने पीने के लिए कहीं कुछ नहीं बचा है. इस स्वार्थी मानव द्वारा दूध पीकर घी, दही मट्ठा खाकर आवारा छोड़ दिए गए इन गोवंशों के लिए न तो इस धरती में कोइ जगह है न ही कहीं अन्यत्र. आखिर यह बेचारे बेजुबान पशु जांए तो जाएँ कहाँ? कौन है इनका मालिक? क्या अहिंसा और सभी जीवों में एक ही ईश्वर का पाठ पढ़ाने वाली भारतीय संस्कृति का यही हाल होगा? क्या कभी भारतीय संस्कृति में माता की उपमा प्राप्त गौ माता की इसी भारतीय समाज मे इससे भी अधिक और दुर्दशा देखने को मिलेगी? क्या भगवान् शिव के वाहक नंदी के लिए भगवान् भोलेनाथ के बानाये इस संसार में और और जगह नहीं बची है? अपने स्वार्थ और पेट की दुहाई देने वाले इस कलयुगी मानव के लिए  यह सब प्रश्न है जिनका जबाब इसे देना पड़ेगा अन्यथा वह समय दूर नहीं जब भारतीय संस्कृति विलुप्त प्राय संस्कृतियों में शामिल हो जाएगी. क्योंकि जब गोवंश ही नहीं रहे तो भारतीय संस्कृति कहलाने का ही क्या औचित्य होगा.

  - शिवानंद द्विवेदी 7869992139

No comments: